"अज़ादारी"
"عزاداری"
(नौजवानो क़ौम के समझो अज़ादारी है क्या)
(نوجوانوں قوم کے سمجھو عزاداری ہے کیا)
✍🏻
जाग जाओ गफ़लतो से सच से रिश्ता जोड़ दो,
जाल जो दुश्मन ने बुन रख्खा है उसको तोड़ दो,
जो ख़िलाफ़े मक़सदे शैह हैं वो रस्में छोड़ दो,
फिर ज़माने का हुसैन आयेगा तय्यारी करो...
जिससे राज़ी हों इमाम ऐसी अज़ादारी करो...
جاگ جاؤ غفلتوں سے سچ سے رشتہ جوڑ دو،
جال جو دشمن نے بن رکّھا ہے اسکو توڑ دو،
جو خلافِ مقصدِ شہ ہیں وہ رسمیں چھوڑ دو،
پھر زمانے کا حُسین آئیگا طیّاری کرو...
جس سے راضی ھوں امام ایسی عزاداری کرو...
✍🏻
भूल कर क्यूँ अपने मक़सद और हदफ़ को चल दिये,
छोड़कर इंसानियत की पाक सफ़ को चल दिये,
नौहाख्वानी करते ही घर की तरफ़ को चल दिये,
ज़ेहनियत कैसी अज़ादारों हमारी हो गयी...
मजलिसे शैह भी हमारी और तुम्हारी हो गयी...
بھول کر کیوں اپنے مقصد اور حدف کو چل دئے،
چھوڑکر انسانیت کی پاک صف کو چل دئے،
نوحہ خوانی کرتے ہی گھر کی طرف کو چل دئے،
ذہنیت کیسی عزاداروں ہماری ہو گئ...
مجلسِ شہ بھی ہماری اور تمہاری ہو گئ...
✍🏻
क्यूँ नहीं है आपको इस बात का हरगिज़ ख़्याल,
हक़ बयाँ करना हुआ जाता है अब हर दिन मुहाल,
हो रहा है मक़सदे शब्बीर यूँ भी पायमाल,
लोग दीने शाह को बेआबरू करने लगे...
बेनमाज़ी मिम्बरों से गुफ़्तुगू करने लगे...
کیوں نہیں ہے آپکو اِس بات کا ہرگز خیال،
حق بیاں کرنا ہوا جاتا ہے اب ہر دن مُحال،
ہو رہا ہے مقصدِ شبّیر یوں بھی پائمال،
لوگ دینِ شاہ کو بے آبرو کرنے لگے...
بے نمازی منبروں سے گفتگو کرنے لگے...
✍🏻
आ गया माहे अज़ा मसरूफ़ यूँ हम हो गये,
बन रहे हैं मजलिसों के वास्ते कपड़े नये,
क्या इमाम इसको अज़ादारी कहेंगे सोचिये,
जो हैं बेबुनियाद रस्में उनसे बेज़ारी करो...
मक़सदे शब्बीर की हद में अज़ादारी करो...
آ گیا ماہِ عزا مصروف یوں ہم ہو گئے،
بن رہے ہیں مجلسوں کے واسطے کپڑے نئے،
کیا امام اِسکو عزاداری کہیں گے سوچئے،
جو ہیں بے بنیاد رسمیں ان سے بے زاری کرو...
مقصدِ شبّیر کی حد میں عزاداری کرو...
✍🏻
नौहाख्वानी में कलाकारी कहाँ से आ गयी,
अंजुमनबाज़ी की बीमारी कहाँ से आ गयी,
बेनमाज़ी को अलमदारी कहाँ से आ गयी,
फ़ातेमा ज़हरा के फिर दिल को दुखाने आ गये...
बेनमाज़ी परचमे ग़ाज़ी उठाने आ गये...
نوحہ خوانی میں کلاکاری کہاں سے آ گئ،
انجمن بازی کی بیماری کہاں سے آ گئ،
بے نمازی کو علمداری کہاں سے آ گئ،
فاطِمہ زہرا کے پھر دل کو دُکھانے آ گئے...
بے نمازی پرچمِ غازی اٹھانے آ گئے...
✍🏻
देखिये जिस जाँ मुहर्रम की नज़र आती है धूम,
आ रहे हैं हम जुलूसों में लगाकर परफ़्यूम,
मजलिसे सरवर नज़र आने लगी मिस्ले हुजूम,
याद रस्मों को रखा पामाल मक़सद कर दिया...
जब जहाँ चाहा वहाँ परचम बरआमद कर दिया...
دیکھئے جس جاں محرّم کی نظر آتی ہے دھوم،
آ رہے ہیں ہم جلوسوں میں لگاکر پرفیوم،
مجلسِ سرور نظر آنے لگی مثلِ حجوم،
یاد رسموں کو رکھا پامال مقصد کر دیا...
جب جہاں چاہا وہاں پرچم برآمد کر دیا...
✍🏻
मक़सदे शब्बीर तो शायद नहीं है हमको याद,
कर रहे हैं मजलिसों मातम में हम झगड़ा फ़साद,
और फिर उसपे ये नारा सुन्नी-शीया इत्तेहाद,
इत्तेहाद इस तरह कैसे दोसतो हो जायेगा...
फूट जब आपस में है तो ग़ैर कैसे आयेगा...
مقصدِ شبّیر تو شاید نہیں ہے ہمکو یاد،
کر رہے ہیں مجلس و ماتم میں ہم جھگڑا فصاد،
اور پھر اُس پر یہ نعرہ سنّی شیعہ اتّحاد،
اتّحاد اس طرح کیسے دوستوں ہو جائیگا...
پھوٹ جب آپس میں ہے تو غیر کیسے آئیگا...
✍🏻
शाह का हम ग़म मनायें तो इबादत जान कर,
हम हैं ज़हरा की दुआ ये मरतबा पहचान कर,
जो फ़क़ीहे क़ौम कहदे बात उसकी मान कर,
मुजतहिद के क़ौल में टकराव न तफरीक़ हो...
अक़्ल के मीज़ान में हर बात की तस्दीक़ हो...
شاہ کا ہم غم منائیں تو عبادت جان کر،
ہم ہیں زہرا کی دُعا یہ مرتبہ پہچان کر،
جو فقیحِ قوم کہ دے بات اُسکی مان کر،
مُجتحِد کے قول میں ٹکراؤ نہ تفریق ہو...
عقل کے میزان میں ہر بات کی تصریق ہو...
✍🏻
जिस तरफ़ देखो जुलूसों की उधर भरमार है,
ये अज़ादारी नहीं है रस्मों का त्यौहार है,
आज अपनी क़ौम को इस्लाह की दरकार है,
ये अज़ादारी हमारी ज़िन्दगी पे क़र्ज़ है...
पुरख़ुलूस इसको मनाना ही हमारा फ़र्ज़ है...
جس طرف دیکھو جلوسوں کی اُدھر بھرمار ہے،
یہ عزاداری نہیں ہے رسموں کا تیوہار ہے،
آج اپنی قوم کو اصلاح کی درکار ہے،
یہ عزاداری ہماری زندگی پر قرض ہے...
پرخلوص اِسکو منانا ہی ہمارا فرض ہے...
✍🏻
आ रहे हैं मिम्बरे शब्बीर पे कुछ बेहया,
दे रहे हैं नौजवानों को नई एक करबला,
मुनकिरे इस्लाम हैं ये इनको तुम समझो ज़रा,
दुश्मने शब्बीर को दीं का सबक़ किसने दिया...
मिम्बरों पे बैठने का इनको हक़ किसने दिया...
آ رہے ہیں منبرِ شبّیر پر کچھ بے حیا،
دے رہے ہیں نوجوانوں کو نئ ایک کربلا،
منکرِ اسلام ہیں یہ انکو تم سمجھو زرا،
دشمنِ شبّیر کو دیں کا سبق کس نے دیا...
منبروں پہ بیٹھنے کا انکو حق کس نے دیا...
✍🏻
मिम्बरों से बैठकर वो पुरअसर तक़रीर हो,
सुनने वालों के दिलों में करबला तामीर हो,
मक़सदे शब्बीर की पेशे नज़र तस्वीर हो,
बात है कड़वी मगर हक़ का बयाँ है दोस्तों...
जो न दे पैग़ाम वो मजलिस कहाँ है दोस्तों...
منبروں سے بیٹھکر وہ پر اثر تقریر ہو،
سننے والوں کے دلوں میں کربلا تعمیر ہو،
موصدِ شبّیر کی پیشِ نظر تصویر ہو،
بات ہے کڑوی مگر حق کا بیاں ہے دوستوں...
جو نہ دے پیغام وہ مجلس کہاں ہے دوستوں...
✍🏻
ख़ुदपसन्दी जिसमें हो शामिल अज़ादारी कहाँ,
जिससे हो इस्लाम को मुश्किल अज़ादारी कहाँ,
जो नमाज़ों से करे ग़ाफ़िल अज़ादारी कहाँ,
कह रहे हैं आज भी मक़तल से अनसारे हुसैन...
बेनमाज़ी हो नहीं सकता अज़ादारे हुसैन...
خودپسندی جسمیں ہو شامل عزاداری کہاں،
جس سے ہو اسلام کو مشکل عزاداری کہاں،
جو نمازوں سے کرے غافل عزاداری کہاں...
کہہ رہے ہیں آج بھی مقتل سے انصارِ حُسین...
بے نمازی ہو نہیں سکتا عزادارِ حُسین...
✍🏻
ज़िक्र है पाकीज़ा इसमें गन्दगी अच्छी नहीं,
मजलिसों के नाम पर आवारगी अच्छी नहीं,
ऐ कनीज़े फ़ातेमा बेपर्दगी अच्छी नहीं,
जो दिले ज़हरा पे हैं उन ज़ख़्मों का मरहम करो...
जिस तरह ज़ैनब ने बतलाया है वैसे गम करो...
ذکر ہے پاکیزہ اسمیں گندگی اچھّی نہیں،
مجلسوں کے نام پر آوارگی اچھّی نہیں،
اے کنیزِ فاطمہ بے پردگی اچھّی نہیں،
جو دلِ زہرا پہ ہیں ان زخموں کا مرحم کرو...
جس طرح زینب نے بتلایا ہے ویستے غم کرو...
✍🏻
सिर्फ़ रोना और रुलाना ही अज़ादारी नहीं,
मजलिसों में आना जाना ही अज़ादारी नहीं,
परचमे ग़ाज़ी उठाना ही अज़ादारी नहीं,
जिसकी हरएक साँस में शामिल है किरदारे हुसैन.
बस हक़ीक़त में वो ही होगा अज़ादारे हुसैन...
صرف رونا اور رُلانا ہی عزاداری نہیں،
مجلسوں میں آنا جانا ہی عزاداری نہیں،
پرچمِ غازی اُٹھانا ہی عزاداری نہیں،
جسکی ہر ایک سانس میں شامِل ہو کردارِ حسین...
بس حقیقت میں وہ ہی ہوگا عزادارِ حسین...
✍🏻
टूटने पाये नहीं शब्बीर की उम्मीदो आस,
तक़वा ओ ईमान का हम पहनकर निकलें लिबास,
आज है "सलमान" की सब शायरों से इलतेमास,
मरतबा पहचानों अपना शाह के मद्दाह हो...
शायरी ऐसी हो जिससे क़ौम की इस्लाह हो...
ٹوٹنے پائے نہیں شبّیر کی امّید و آس،
تقویٰ و ایمان کا ہم پہن کر نکلیں لباس،
آج ہے "سلمان" کی سب شاعروں سے التماس،
مرتبہ پہچانوں اپنا شاہ کے مدّاح ہو...
شاعری ایسی ہو جسسے قوم کی اصلاح ہو...
(नौजवानों क़ौम के समझो अज़ादारी है क्या)
(نوجوانوں قوم کے سمجھو عزاداری ہے کیا)
"عزاداری"
(नौजवानो क़ौम के समझो अज़ादारी है क्या)
(نوجوانوں قوم کے سمجھو عزاداری ہے کیا)
✍🏻
जाग जाओ गफ़लतो से सच से रिश्ता जोड़ दो,
जाल जो दुश्मन ने बुन रख्खा है उसको तोड़ दो,
जो ख़िलाफ़े मक़सदे शैह हैं वो रस्में छोड़ दो,
फिर ज़माने का हुसैन आयेगा तय्यारी करो...
जिससे राज़ी हों इमाम ऐसी अज़ादारी करो...
جاگ جاؤ غفلتوں سے سچ سے رشتہ جوڑ دو،
جال جو دشمن نے بن رکّھا ہے اسکو توڑ دو،
جو خلافِ مقصدِ شہ ہیں وہ رسمیں چھوڑ دو،
پھر زمانے کا حُسین آئیگا طیّاری کرو...
جس سے راضی ھوں امام ایسی عزاداری کرو...
✍🏻
भूल कर क्यूँ अपने मक़सद और हदफ़ को चल दिये,
छोड़कर इंसानियत की पाक सफ़ को चल दिये,
नौहाख्वानी करते ही घर की तरफ़ को चल दिये,
ज़ेहनियत कैसी अज़ादारों हमारी हो गयी...
मजलिसे शैह भी हमारी और तुम्हारी हो गयी...
بھول کر کیوں اپنے مقصد اور حدف کو چل دئے،
چھوڑکر انسانیت کی پاک صف کو چل دئے،
نوحہ خوانی کرتے ہی گھر کی طرف کو چل دئے،
ذہنیت کیسی عزاداروں ہماری ہو گئ...
مجلسِ شہ بھی ہماری اور تمہاری ہو گئ...
✍🏻
क्यूँ नहीं है आपको इस बात का हरगिज़ ख़्याल,
हक़ बयाँ करना हुआ जाता है अब हर दिन मुहाल,
हो रहा है मक़सदे शब्बीर यूँ भी पायमाल,
लोग दीने शाह को बेआबरू करने लगे...
बेनमाज़ी मिम्बरों से गुफ़्तुगू करने लगे...
کیوں نہیں ہے آپکو اِس بات کا ہرگز خیال،
حق بیاں کرنا ہوا جاتا ہے اب ہر دن مُحال،
ہو رہا ہے مقصدِ شبّیر یوں بھی پائمال،
لوگ دینِ شاہ کو بے آبرو کرنے لگے...
بے نمازی منبروں سے گفتگو کرنے لگے...
✍🏻
आ गया माहे अज़ा मसरूफ़ यूँ हम हो गये,
बन रहे हैं मजलिसों के वास्ते कपड़े नये,
क्या इमाम इसको अज़ादारी कहेंगे सोचिये,
जो हैं बेबुनियाद रस्में उनसे बेज़ारी करो...
मक़सदे शब्बीर की हद में अज़ादारी करो...
آ گیا ماہِ عزا مصروف یوں ہم ہو گئے،
بن رہے ہیں مجلسوں کے واسطے کپڑے نئے،
کیا امام اِسکو عزاداری کہیں گے سوچئے،
جو ہیں بے بنیاد رسمیں ان سے بے زاری کرو...
مقصدِ شبّیر کی حد میں عزاداری کرو...
✍🏻
नौहाख्वानी में कलाकारी कहाँ से आ गयी,
अंजुमनबाज़ी की बीमारी कहाँ से आ गयी,
बेनमाज़ी को अलमदारी कहाँ से आ गयी,
फ़ातेमा ज़हरा के फिर दिल को दुखाने आ गये...
बेनमाज़ी परचमे ग़ाज़ी उठाने आ गये...
نوحہ خوانی میں کلاکاری کہاں سے آ گئ،
انجمن بازی کی بیماری کہاں سے آ گئ،
بے نمازی کو علمداری کہاں سے آ گئ،
فاطِمہ زہرا کے پھر دل کو دُکھانے آ گئے...
بے نمازی پرچمِ غازی اٹھانے آ گئے...
✍🏻
देखिये जिस जाँ मुहर्रम की नज़र आती है धूम,
आ रहे हैं हम जुलूसों में लगाकर परफ़्यूम,
मजलिसे सरवर नज़र आने लगी मिस्ले हुजूम,
याद रस्मों को रखा पामाल मक़सद कर दिया...
जब जहाँ चाहा वहाँ परचम बरआमद कर दिया...
دیکھئے جس جاں محرّم کی نظر آتی ہے دھوم،
آ رہے ہیں ہم جلوسوں میں لگاکر پرفیوم،
مجلسِ سرور نظر آنے لگی مثلِ حجوم،
یاد رسموں کو رکھا پامال مقصد کر دیا...
جب جہاں چاہا وہاں پرچم برآمد کر دیا...
✍🏻
मक़सदे शब्बीर तो शायद नहीं है हमको याद,
कर रहे हैं मजलिसों मातम में हम झगड़ा फ़साद,
और फिर उसपे ये नारा सुन्नी-शीया इत्तेहाद,
इत्तेहाद इस तरह कैसे दोसतो हो जायेगा...
फूट जब आपस में है तो ग़ैर कैसे आयेगा...
مقصدِ شبّیر تو شاید نہیں ہے ہمکو یاد،
کر رہے ہیں مجلس و ماتم میں ہم جھگڑا فصاد،
اور پھر اُس پر یہ نعرہ سنّی شیعہ اتّحاد،
اتّحاد اس طرح کیسے دوستوں ہو جائیگا...
پھوٹ جب آپس میں ہے تو غیر کیسے آئیگا...
✍🏻
शाह का हम ग़म मनायें तो इबादत जान कर,
हम हैं ज़हरा की दुआ ये मरतबा पहचान कर,
जो फ़क़ीहे क़ौम कहदे बात उसकी मान कर,
मुजतहिद के क़ौल में टकराव न तफरीक़ हो...
अक़्ल के मीज़ान में हर बात की तस्दीक़ हो...
شاہ کا ہم غم منائیں تو عبادت جان کر،
ہم ہیں زہرا کی دُعا یہ مرتبہ پہچان کر،
جو فقیحِ قوم کہ دے بات اُسکی مان کر،
مُجتحِد کے قول میں ٹکراؤ نہ تفریق ہو...
عقل کے میزان میں ہر بات کی تصریق ہو...
✍🏻
जिस तरफ़ देखो जुलूसों की उधर भरमार है,
ये अज़ादारी नहीं है रस्मों का त्यौहार है,
आज अपनी क़ौम को इस्लाह की दरकार है,
ये अज़ादारी हमारी ज़िन्दगी पे क़र्ज़ है...
पुरख़ुलूस इसको मनाना ही हमारा फ़र्ज़ है...
جس طرف دیکھو جلوسوں کی اُدھر بھرمار ہے،
یہ عزاداری نہیں ہے رسموں کا تیوہار ہے،
آج اپنی قوم کو اصلاح کی درکار ہے،
یہ عزاداری ہماری زندگی پر قرض ہے...
پرخلوص اِسکو منانا ہی ہمارا فرض ہے...
✍🏻
आ रहे हैं मिम्बरे शब्बीर पे कुछ बेहया,
दे रहे हैं नौजवानों को नई एक करबला,
मुनकिरे इस्लाम हैं ये इनको तुम समझो ज़रा,
दुश्मने शब्बीर को दीं का सबक़ किसने दिया...
मिम्बरों पे बैठने का इनको हक़ किसने दिया...
آ رہے ہیں منبرِ شبّیر پر کچھ بے حیا،
دے رہے ہیں نوجوانوں کو نئ ایک کربلا،
منکرِ اسلام ہیں یہ انکو تم سمجھو زرا،
دشمنِ شبّیر کو دیں کا سبق کس نے دیا...
منبروں پہ بیٹھنے کا انکو حق کس نے دیا...
✍🏻
मिम्बरों से बैठकर वो पुरअसर तक़रीर हो,
सुनने वालों के दिलों में करबला तामीर हो,
मक़सदे शब्बीर की पेशे नज़र तस्वीर हो,
बात है कड़वी मगर हक़ का बयाँ है दोस्तों...
जो न दे पैग़ाम वो मजलिस कहाँ है दोस्तों...
منبروں سے بیٹھکر وہ پر اثر تقریر ہو،
سننے والوں کے دلوں میں کربلا تعمیر ہو،
موصدِ شبّیر کی پیشِ نظر تصویر ہو،
بات ہے کڑوی مگر حق کا بیاں ہے دوستوں...
جو نہ دے پیغام وہ مجلس کہاں ہے دوستوں...
✍🏻
ख़ुदपसन्दी जिसमें हो शामिल अज़ादारी कहाँ,
जिससे हो इस्लाम को मुश्किल अज़ादारी कहाँ,
जो नमाज़ों से करे ग़ाफ़िल अज़ादारी कहाँ,
कह रहे हैं आज भी मक़तल से अनसारे हुसैन...
बेनमाज़ी हो नहीं सकता अज़ादारे हुसैन...
خودپسندی جسمیں ہو شامل عزاداری کہاں،
جس سے ہو اسلام کو مشکل عزاداری کہاں،
جو نمازوں سے کرے غافل عزاداری کہاں...
کہہ رہے ہیں آج بھی مقتل سے انصارِ حُسین...
بے نمازی ہو نہیں سکتا عزادارِ حُسین...
✍🏻
ज़िक्र है पाकीज़ा इसमें गन्दगी अच्छी नहीं,
मजलिसों के नाम पर आवारगी अच्छी नहीं,
ऐ कनीज़े फ़ातेमा बेपर्दगी अच्छी नहीं,
जो दिले ज़हरा पे हैं उन ज़ख़्मों का मरहम करो...
जिस तरह ज़ैनब ने बतलाया है वैसे गम करो...
ذکر ہے پاکیزہ اسمیں گندگی اچھّی نہیں،
مجلسوں کے نام پر آوارگی اچھّی نہیں،
اے کنیزِ فاطمہ بے پردگی اچھّی نہیں،
جو دلِ زہرا پہ ہیں ان زخموں کا مرحم کرو...
جس طرح زینب نے بتلایا ہے ویستے غم کرو...
✍🏻
सिर्फ़ रोना और रुलाना ही अज़ादारी नहीं,
मजलिसों में आना जाना ही अज़ादारी नहीं,
परचमे ग़ाज़ी उठाना ही अज़ादारी नहीं,
जिसकी हरएक साँस में शामिल है किरदारे हुसैन.
बस हक़ीक़त में वो ही होगा अज़ादारे हुसैन...
صرف رونا اور رُلانا ہی عزاداری نہیں،
مجلسوں میں آنا جانا ہی عزاداری نہیں،
پرچمِ غازی اُٹھانا ہی عزاداری نہیں،
جسکی ہر ایک سانس میں شامِل ہو کردارِ حسین...
بس حقیقت میں وہ ہی ہوگا عزادارِ حسین...
✍🏻
टूटने पाये नहीं शब्बीर की उम्मीदो आस,
तक़वा ओ ईमान का हम पहनकर निकलें लिबास,
आज है "सलमान" की सब शायरों से इलतेमास,
मरतबा पहचानों अपना शाह के मद्दाह हो...
शायरी ऐसी हो जिससे क़ौम की इस्लाह हो...
ٹوٹنے پائے نہیں شبّیر کی امّید و آس،
تقویٰ و ایمان کا ہم پہن کر نکلیں لباس،
آج ہے "سلمان" کی سب شاعروں سے التماس،
مرتبہ پہچانوں اپنا شاہ کے مدّاح ہو...
شاعری ایسی ہو جسسے قوم کی اصلاح ہو...
(नौजवानों क़ौम के समझो अज़ादारी है क्या)
(نوجوانوں قوم کے سمجھو عزاداری ہے کیا)